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02:59, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
कभी तो फूल की रुत है कभी खिजां हूँ मैं
फ़क़त निखरने, बिखरने की दास्तां हूँ मैं
बरस के अब्र की मानिंद मुझको देख ज़रा
मैं रंगो-नूर का हामिल हूँ कहकशां हूँ मैं
बिख़र चुका हूँ मैं कितना किसे ये क्या मालूम
कहां कहां मैं नहीं हूँ कहां कहां हूँ मैं।
मुझे तलाश न कर मैं हूँ लहर दरिया की
अभी करीब था तेरे अभी वहां हूँ मैं
मैं अपने ज़ेहन के अंदर तवाफ़ करता हूँ
मैं रंगो-बू का सरापा हूँ गुलिस्तां हूँ मैं।
</poem>