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10:05, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वसीम बरेलवी
|अनुवादक=
|संग्रह=मेरा क्या / वसीम बरेलवी
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<poem>
मुझे बुझा दे, मेरा दौर मुख़्तसर कर दे
मगर िदये की तरह मुझको मौतबर कर दे
बिखरते-टूटते िरश्तों की उम्र ही कितनी
मैं तेरी शाम है , आजा, मेरी सहर कर दे
जुदाइयों की यह राते तो काटनी होंगी
कहािनयों को कोई कै से मुख़्तसर कर दे
तेरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा है
कि जैसे बचचा किताबे इधर-उधर कर दे
'वसीम' किसने कहा था कि यूं ग़ज़ल कहकर
यह फ़ूल-जैसी ज़मी आंसुओ से तर कर द
</poem>