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|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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<poem>
गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं,
कबूतर स्वेत मारे जा रहे हैं।

मैं दुनिया की तरक्की क्या कहूँ अब
हया के पट उतारे जा रहे हैं।

यहाँ तो रेल की सी गति में हैं सब,
सुहाने दृश्य भागे जा रहे हैं।

निचोड़ा जा रहा है जुगुनुओं को,
नये सूरज निकाले जा रहे हैं।

यहाँ सुनता नहीं कोई किसी की,
न जाने क्यों पुकारे जा रहे हैं।

उन्हें आगाह करना चाहता हूँ,
जो छुप-छुप कर बताशे खा रहे हैं।

ज़रा वे मुड़ के पीछे भी निहारें,
जिन्हें है भ्रम कि आगे जा रहे हैं।

अजब आलम है यारों भुखमरी का,
कि अब पत्थर उबाले जा रहे हैं।

ये कैसी योजना है 'ज्ञान' आखिर,
घरों में बाज पाले जा रहे हैं
</poem>
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