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तुम कनक किरन / जयशंकर प्रसाद

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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद
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तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?
तुम कनक किरन नत मस्तक गवर् वहन करतेयौवन के अंतराल में<br>घन रस कन झरतेहे लाज भरे सौंदर्य बता दोलुक छिप कर चलते मोन बने रहते हो क्यों क्यो?<br><br>
नत मस्तक गवर् वहन करते<br>यौवन अधरों के घन रस कन झरते<br>मधुर कगारों मेंकल कल ध्वनि की गुंजारों मेंहे लाज भरे सौंदर्य बता दो<br>मधु सरिता सी यह हंसी तरलमोन बने अपनी पीते रहते हो क्योक्यों?<br><br>
अधरों के मधुर कगारों में<br>कल कल ध्वनि की गुंजारों में<br>मधु सरिता सी यह हंसी तरल<br>अपनी पीते रहते हो क्यों?<br><br> बेला विभ्रम की बीत चली<br>रजनीगंधा की कली खिली<br>अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल<br>कलित हो यों छिपते हो क्यों?<br><br/poem>
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