एक
प्यार आलोकित कर जाता है <br>सुबहों को <br>और शामों को <br>बनाता चला जाता है रहस्यमयी <br>प्यार <br>जैसे तारों से आती है टंकार...<br>और सारा दिन निस्तेज पड़े <br>चाँद की रौशनी <br>वापस आने लगती है <br>प्यार<br>कि आत्मा अपने ही शरीर से बेरुखी करती <br>कहीं और जा समाने को मचलने लगती!<br>प्यार <br>और खुशियों का ठाठें मारता पारावार चतुर्दिक <br>और आसमान डूबता चला जाता है समंदर में <br>उसके अनंत खारेपन को <br>अपनी नीली सुगंध से रचता...<br>रौशन करता <br>कि शब्दों की अनंत लड़ी <br>फूटने-फूटने को होती है जेहन से <br>और इस नाजुक लड़ी में कैद होता चला जाता है <br>कोई भी कठोरतम हृदय <br>प्यार <br>और अरुणाकाश में पसरने लगते हैं सप्तवर्णी रंग <br>पंछियों के परों को स्निग्ध और उर्जामयी करते हुए <br>प्यार <br>और पूरी रात नशे में फूटते हरसिंगारों को सँभालती <br>थकने लगती है रात <br>और जा गिरती है सुबह की गोद में <br>सुगंध से पूरित!<br>प्यार <br>और दो नामालूम से जन <br>एक दूसरे को बनाना शुरू करते हैं विराट <br>तो फिर तमाम मिथकों और दंतकथाओं को <br>उनका पार पाना कठिन पड़ने लगता है <br>प्यार <br>एक धीमी-सी आकुल पुकार <br>जो बहुगुणित होती कंपाने लगती है <br>आकाशगंगाओं को <br>और तारों की छीजती बेचैन रौशनी <br>अनंत प्रकाश बिंदुओं में <br>तब्दील होती चली जाती है...<br><br>
दो <br>
प्यार <br>जैसे एक हाहाकार <br>आकुल व्याकुल जनों की नींद में जगता <br>दु:स्वप्नों की तरह <br>जनसमुद्र की अनंत पछाड <br>तोड़ती हाड तट का <br>प्यार <br>एक विनम्र इनकार <br>विश्वबाज़ार के सुनहले ऊँटों को <br>कि हम जो भी जैसे भी है <br>स्वतंत्र और समृद्धि हैं <br>अपनी आत्मा के ताप के साथ <br>प्यार<br>कि हाँ तुम अब भी <br>ले सकते हो हमसे <br>अनंत उधार शब्दों का <br>और उसका मोल चुकाए बिना <br>उससे अपनी किस्मत <br>चमकाए फिर सकते हो <br>प्यार<br>पीडि़त जनेां जनें की आत्मा का <br>एकल और संयुक्त इश्तहार कि <br>हां हम अकेले है <br>पीडि़त हैं क्षुधित हैं <br>पर हम ही भर सकते हैं <br>विश्व का अक्षय अनंत अन्न,रत्नकोश <br>कि हमारी असमाप्त क्षुधा का <br>तुम नहीं कर सकते व्योपार...<br>प्यार प्यार प्यार <br>आदमी के अंतर और बाहर <br>दसों दिशाओ से आती है एक ही पुकार <br>प्यार प्यार प्यार <br>
{ अरूणा राय के लिए , एक सुबह जिनका चैट पर इंतजार करते यह कविता लिखी थी }