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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
कौन सा जादू चला हैरत में हर अय्यार था
जीत उसकी हो गई जो हार कर हक़दार था।

आज वो हमसे मिला अफ़सोस ग़ैरों की तरह
जो हमारे ज़ख़्म पर मरहम का दावेदार था।

वो शजर, रखते थे जो मुठ्ठी में अपनी आंधियां
उड़ गये तूफ़ान इतना तेज़ पुर-रफ्तार था।

कह उठे दीवारो-दर वो क्यों न आया आज तक
जिसकी ख़ातिर मुद्दतों से मुंतज़िर दरबार था

छोड़ देना चाहता था जज मुकदमा देख कर
हो बरी मुल्जिम न इस ख़्वाहिश में पैरोकार था।

ताज पूंजीवाद के सिर चाहता कोई न, बस
एक हातिमताई सच्चा मुल्क को दरकार था।

मेरे जाने से ये चोरी बन्द हो, तो मैं चलूं
रख नया लो कह रहा कल रात चौकीदार था।
</poem>
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