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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
जब से मित्रों रेल मतवाली बहुत महँगी हुई
दाल रोटी साग की थाली बहुत महँगी हुई।

हाथ हैं उठने लगे अब मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में
चाहे जितनी हो खुशी, ताली बहुत महँगी हुई।

खत्म रस्में भात की करने लगी हैं शादियां
लोकप्रिय ससुराल की गाली बहुत महँगी हुई।

हो चली हैं नुक्कड़ों से दूर गप्पेबाजियां
जब से काफ़ी चाय की प्याली बहुत महँगी हुई।

है बहुत नाराज़ अपनी गुलबदन, जब से मियां
इत्र सुरमा आलता लाली बहुत महँगी हुई।

मांग बच्चो की अधूरी रह गई इस बार फिर
दोस्त अब की बार दीवाली बहुत महँगी हुई।

तोड़ दी हद दूध, दारू-दवा के दाम ने
सांस की 'विश्वास' रखवाली बहुत महँगी हुई।
</poem>
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