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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
दूसरों का ग़म गले अपने लगाता कौन है
दुश्मनों को अब महब्बत से हराता कौन है।

हो रही है हर तरफ बस जंग की तैयारियां
ज़ख़्म ओर ग़ैरों के अब मरहम लगाता कौन है।

खून से दिल के लिखी जाती नहीं अब चिठ्ठियां
और क़ासिद अब कबूतर को बनाता कौन है।

मेरी नींदों को चुराने रात के पिछले पहर
दिल का दरवाज़ा न जाने खटखटाता कौन है।

खत्म है अब तो घरों में इत्रदानी की जगह
बाग़ खुशबूदार फूलों के लगाता कौन है।

कल नजूमी से गया था, पूछने रोता हुआ
आइने से झांक कर मुझको डराता कौन है।

रब ने बख्शी है चरागों को फरिश्तों की सिफ़त
वरना ग़ैरों के लिए खुद को जलाता कौन है।

वो छुपाएं लाख पर 'विश्वास' हमको है पता
देख कर आंसू हमारे मुस्कुराता कौन है।


</poem>
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