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08:57, 11 सितम्बर 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरीश प्रधान
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<poem>
काँच का पर्दा गिरा, यों न मुस्कुराते रहो,
खुद उठाओगे नहीं, तोड़ना मजबूरी है।
भीड़ है, भीड़ का वातावरण है चारों तरफ,
रुक के, दम लूँ मैं कहाँ, दौड़ना मजबूरी है।
है कहाँ आपको फ़ुरसत, जो ज़रा देखें इधर,
अब लिहाज़ों का धरम, छोड़ना मजबूरी है।
बात करते हुए भी, हमसे जो कतराते हैं,
रिश्ता उनसे भी यहाँ, जोड़ना मजबूरी है।
बेतहाशा बढ़ा है दर्द, तन बदन में मेरे,
एक फोड़ा पका है, फोड़ना मजबूरी है।
</poem>