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|रचनाकार=मंजु लता श्रीवास्तव
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<poem>
सूरज का मुखड़ा उदास है
निशा काँपती दिन निराश है

अरुणाई पीहर जा बैठी
धूप समंदर बीच समाई
मीनारों पर चढ़ा अंधेरा
धँसी धरा भीतर परछाई
हुआ दिवस संध्या के जैसा
सहमा-सहमा सा प्रकाश है

सर्द हवाएँ निज गुमान में
गुरबत को आँखें दिखलातीं
पात-पात, खिड़की, वातायण
से वह सरसर आतीं-जातीं
कुहरे ने चादर तानी है
बिन कम्बल राही हताश है

बचपन रार करे मौसम से
भागा-दौड़ी करे जवानी
बूढ़ी साँसे काँप-काँप कर
चलती लँगड़ी चाल पुरानी
गीली लकड़ी फूँके पसली
पैर और छाती पास-पास है
</poem>
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