1,127 bytes added,
10:14, 18 फ़रवरी 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राहुल शिवाय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
थककर चूर पड़ी कोने में
मुझको दिखी नदी
जिसमें मन्नत के दीपों को
जलते देखा है
पालिथीन उसको ही आज उगलते
देखा है
भूल गये आखिर कैसे हम
नेकी और वदी
काट नदी की सौ बाहों को
कहां हृदय रोया
विजय नदी पर पायी लेकिन
क्या-क्या ना खोया
कब पिसने का दर्द समझते
रचते बस मेहँदी
नई सदी विकसित होने की
ओर बढ़ रही है
उन्नति के जो नित्य नए सोपान
चढ़ रही है
लेकिन क्या सच देख पा रही
कैसे बढ़ी सदी
</poem>