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Kavita Kosh से
तो
नींद में जैसे बार-बार
उसे इसकी सिसकी आती है
ऐसे
मुझे तेरी याद आती है
बार-बार
मारती है चोंच
एक बार-दास दस बार-सौ बार
हज़ार बार ।
ख़ुद पर करती प्रहार-
अक्सर हमारी सारी ज़िन्दगी
खुद से लरते लड़ते , चोट खाते बीतती है।
-0-
पर कुछ याद नहीं आता ।
एक अँधेरी सुरंग से गुज़र रही गूँहूँ
जाने कब से !
गुज़रूँगी