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अभिरंजित काया / कविता भट्ट

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|संग्रह=मन के कागज़ पर / कविता भट्ट
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<poem>
''''रात की रानी' महक रही थी,'''
पिय आलिंगन बहक रही थी।

सपने सजाए, मधु-गीत गाए,
निज अधर धरे नैना उलझाए।

रख हृदय पर पिय के शीश।
माँगा अंजुरीभर शुभाशीष।

साँस- साँस तक नित प्रसार,
'''अभिरंजित काया अभिसार।'''

अहं मिटाया, किया समर्पण,
झाँका प्रिय आँखों में दर्पण।

नित बैठे पिय क्यों अहं धरे?
नेहडोरी टूटी औ सपने बिखरे।

न जाने थी कुटिल कौन घड़ी?
सिसकी रोकर वह मौन बड़ी।

न भावे- कहाँ वे मन-वचन गए।
क्यों तन-मन-जीवन रुदन भए।

दिन चार जीवित, बँधो भुजपाश,
तन-मन इक कर, झूलें आकाश।

</poem>