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13:20, 11 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार विक्रम
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|संग्रह=
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<poem>
वे सोने की तैयारियाँ कर रहे हैं
उबासियाँ लेते-लेते
और बिस्तरे बिछाते-बिछाते
वो ऊंघ रहे हैं
आधी नींद में खुद के खर्राटे से भयभीत हो
वो हड़बड़ा उठ जा रहे हैं...
हमारे नृत्य अब उन्हें रास नहीं आ रहे हैं
वो अब परेशान होते हैं हमारे दिलासों से
अब हमारे सारे प्रयत्न भाग-दौड़ थक गए हैं
उनके संयम के बाँध टूटने की आवाज़ आ रही है
वह बाँध जिसकी नींव हमने ही डाली थी
और उमंगता से की थी जिसकी घोषणा ...
वह सब अब बिखर रहे हैं
और हम इस अंधकारमय रात के मध्य
उठ रहे हैं उनकी प्याली में कुछ ऐसी सोच उड़ेलने हेतु
जिससे उनकी नींद को फुसला कर रख पाए द्वारपाल
उलझा कर रखे उसे किसी दिशाविहीन बहस में ...
आह! रात प्रति रात
दिन प्रति दिन, पल प्रतिपल
उन्हें नींद आना
और हमारा उन्हें बहलाना
कहना समझाना मारना बहाना पुचकारना
"सुनो ऐ प्रेयसी, बस हम आ ही गए तुम्हारे पास
सारे समंदर लाँघ कर."
'''साक्षी भारत', २००६''
</poem>