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<poem>
दादी बताती है कि बचपन में भी पिता इसी तरह
हो जाते थे गुस्सा और लगते थे काँपते
कई बार बीच दोपहर में निकल जाते
पेड़ की शाखाओं पर रूठ बैठ जाते
बिना सीढ़ियों की छत पर पाए जाते
और कई बार सडकों, गलियों, बाज़ारों के चक्कर काट
चुपचाप पीछे के दरवाज़े से वापस लौट
आँगन के एक कोने में पानी पीते दिखते

अपने विवाह के एक शाम पहले भी
वे कुछ इसी तरह काँपते
फिर कभी वापस न लौटने की धमकी देते हुए
खो गए थे धुंधलाती शाम में
किसी ने उन्हें उस शाम अमरुद खरीदते देखा था
हालाँकि चौक पर अपने एक स्कूली मित्र से टकराकर
उसके साथ बातचीत करते
वे लौट गए थे चुपचाप

दादी के किस्सों को मेरी माँ
मेरी पीठ पर मरहम लगाते हुए आगे बढ़ाती थी
कि कैसे एक शाम खेलकर
देर से आने पर पिता ने भैया की पिटाई
बेंत से की थी
कुछ उसी तरह जिस तरह उस रात
उन्होंने ने मेरी की थी

दादा जब जीवित थे और अरसे बाद पिता को
ज़ोरों से सबके सामने डांटने लगे थे
जिसके चलते दोनों की अनबन कई महीनो तक
घर मैं तैरती रही
जो दीवारों से टकराकर हमारे स्कूल की किताबों में
समा जाती थी

अब भी पिता कुछ इसी तरह हैं
फिर भी हम सबको पसंद हैं पिता
जिनको पसंद है अपना गुस्सा

'''नया ज्ञानोदय', 2008''
</poem>