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07:58, 17 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरिमोहन सारस्वत
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<poem>
सत्य-असत्य
दोनों मेरे हैं
जिन्हें परोसता हूं मैं
अपने मेहमान की थाली में
बड़ी चतुराई के साथ
मेरा मेहमान भी
नहीं है मुझसे कहीं कम
आरोग लेता है वो
मेरी परोसी हर बात को
वाह-वाह के साथ
शर्मिंदा हैं शब्द
मेरी पुरसगारी पर
लानत भेजते हैं
मेरे मेहमान की
दिलदारी पर..
</poem>
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