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<poem>
आप हस्ताक्षर करें
अस्तित्व पर जब
क्या स्वयं को
मैं तभी स्वीकृत करूँगी

कोटरों की ओट में जीवन न होगा
प्लेट सी गोलाई में नर्तन न होगा
मन्ज़िलों का रूप धुँधलाएगा निश्चित
स्वप्न की गन्धों का गर लेपन न होगा

उड़ मैं सकती हूँ
अगर पंछी सदृश तो
बाँह भर आकाश
ही आवृत करूँगी

जो अपरिचित था उसे मैं जान पाई
अपनी आवाज़ों को अपना मान पाई
जब निरन्तर राह पे आगे बढ़ी मैं
ज़िन्दगी के रूप को पहचान पाई

आत्मविश्लेषण
लिखूँगी जब कभी फिर
क्यों किसी की पंक्तियाँ
उद्धृत करूँगी

धूप में क्या लकड़ियाँ तापी गयी हैं
अपनी ही परछाइयाँ नापी गयी हैं
शुभ्र निर्मल कामना पूरित ऋचाएँ
निर्जनी दीवार पर थापी गयी हैं

ऊसरी धरती पे यदि
चलना पड़ा तो
स्वयं को
जलधार बन कृत कृत करूँगी
</poem>
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