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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''आज लपेटो सारे झण्डे, और धरदो एक कोने में।'''
'''एक नया झन्डा रंगना है, अपने रक्त सलौने में।।टेक।।'''
खून की स्याही से वीरों की, लिखी हुई कहानी हो,
महाराणा प्रतापसिंह शिवाजी की, नस्ल निराली हो,
भरी रोष में रक्त बहाती, झांसी वाली रानी हो,
भाभा के गोले हों, और जोश भरी कुर्बानी हो,
क्रोध की आग लहू से बुझती, मान घटै है रोने में।।1।।
चारों तरफ सीमा पै शत्रु ,जोर बांध के लडऩ लगे,
जोश भरा भारी सेना में, अफसर बढ़के अडऩ लगे,
दस दस मन के बम्ब के गोले, आसमान में पडऩ लगे,
पाकिस्तानी भागे खेत से, छुपके घर में बडऩ लगे,
जीत लड़ाई में होगी, और हार फैंसला होने में।।2।।
परमिट और लाईसैंस बनाये, धोखे का व्यापार हुआ,
रिश्वत खोरी और चोरी बाजारी, स्वार्थ का संसार हुआ,
मजदूरों की भूख प्यास में, नफे का सौदा त्यार हुआ,
ना मौके पर चीज मिले, न्यूं बन्द भाव बाजार हुआ,
चून लिफाफे में मिलता है, दाल मिले है दौने में।।3।।
मान बड़ाई के चक्कर में, बण सरपंच फिजूल रहे,
वेद की विद्या लोप हुई, और हो इंगलिश के स्कूल रहे,
पक्की पड़ी पन्जाली जाली, बैठ तख्त पर झूल रहे,
कहै रघुनाथ इसी चक्कर में, भुल्लेराम भी भूल रहे,
बोणा और काटना जग में, जनता डोढ़े पौने में।।4।।
</poem>
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|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''आज लपेटो सारे झण्डे, और धरदो एक कोने में।'''
'''एक नया झन्डा रंगना है, अपने रक्त सलौने में।।टेक।।'''
खून की स्याही से वीरों की, लिखी हुई कहानी हो,
महाराणा प्रतापसिंह शिवाजी की, नस्ल निराली हो,
भरी रोष में रक्त बहाती, झांसी वाली रानी हो,
भाभा के गोले हों, और जोश भरी कुर्बानी हो,
क्रोध की आग लहू से बुझती, मान घटै है रोने में।।1।।
चारों तरफ सीमा पै शत्रु ,जोर बांध के लडऩ लगे,
जोश भरा भारी सेना में, अफसर बढ़के अडऩ लगे,
दस दस मन के बम्ब के गोले, आसमान में पडऩ लगे,
पाकिस्तानी भागे खेत से, छुपके घर में बडऩ लगे,
जीत लड़ाई में होगी, और हार फैंसला होने में।।2।।
परमिट और लाईसैंस बनाये, धोखे का व्यापार हुआ,
रिश्वत खोरी और चोरी बाजारी, स्वार्थ का संसार हुआ,
मजदूरों की भूख प्यास में, नफे का सौदा त्यार हुआ,
ना मौके पर चीज मिले, न्यूं बन्द भाव बाजार हुआ,
चून लिफाफे में मिलता है, दाल मिले है दौने में।।3।।
मान बड़ाई के चक्कर में, बण सरपंच फिजूल रहे,
वेद की विद्या लोप हुई, और हो इंगलिश के स्कूल रहे,
पक्की पड़ी पन्जाली जाली, बैठ तख्त पर झूल रहे,
कहै रघुनाथ इसी चक्कर में, भुल्लेराम भी भूल रहे,
बोणा और काटना जग में, जनता डोढ़े पौने में।।4।।
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