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लाग्छ आजकल म
सधैंजसो एउटा छायाँ बोकेर हिंड्छु
कहीं जानै पर्ने चिन्ताको उज्यालोले पनि लखेट्दैन
आजकल मलाई !
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'''लीजिए, अब पढ़िए, इसी कविता का यस कविताको हिन्दी अनुवाद- ''' ''[[आजकल मुझे / अभि सुवेदी आजकल मुझे लगता है, आजकल मैं अपने साथअक्सर एक छाया को ढोते हुए चलता हूँ।जिस तरह पहाडियोँ के अन्तरङ्ग को समझने के लिएधीरे-धीरे चारों ओर चक्कर लगाती हैं काली घटाएँ,उसी तरह कई आकृतियों में चक्कर लगाते हैं औरों के दिल मेरे चारों तरफ । अपने ही दिल को ढोते हुए चलता हूँ मैं ।आजकल मुझे ऐसा लगता हैकि औरों के दिल के बोझ तले दब-दबकर मैंख़ुद की अस्मिता से ज़्यादाकिसी और ही का जीवन जी रहा हूँ । जब कहा जाता है बहुत से लोग तुझ पे नजर लगाए हुए हैँ, तोतुम अपरिचित आँखों की बाढ़ पर बह रहे होते हो । जब कहते हैंसभी के दिलों को लेकर चल रहे हो, तोतुम वक़्त की पुरानी बस्तियाँ ढूँढ़करउन्हें ठहराने की जगह खोज रहे होते हो ।दिलों के बाढ़ पर किसी को धकेल कर कहते हैँइसी तरह का है इतिहास । किसी की चमकती नज़रों में सीधा देखने पर कोई पीड़ा दिखाई देती है तोकहीँ कोई मजबूत संरचना टूट जाती है ।कोई दिल के भीतर के खण्डहर दिखाकर दर्द जगाता है तोतुम्हारे दिल में ही भूकम्प उठने लगता है। लगता है, इसीलिएइनसान का वक़्त धुन्ध की तरहसभी के दिलों को छूते हुए उड़ता है ।कभी-कभी लगता है,दर्जनों मुर्गों की बाँग के बाद भी नहीं होगी कल की सी सुबह ।ऐसा लगता है किहज़ारों चिड़ियों के मिलकर गाने पर भीवैसी शाम आकाश पर नहीं ढुलकेगी जैसी शाम उतरी थी कल । इसीलिए आजकल अपने ही छोटी-छोटी सुबहों कोअक्षरों मे कुरेदकर काग़ज़ों के मैदानों पर बिखेर देता हूँऔर शामों को पकड़कर कविताओं के क्षितिज पर टाँग देता हूँ । ज़िन्दगी का मतलबपहाड़ के ऊपर चढ़ चुकने के बादएक लम्बा निःश्वास लेते हुए यह कहना ही तो है“ओफ़ ! सब यादें घाटी में ही छूट गईं" शहर मे पावँ रक्खे कितने ही दिन हो चुके ।यहाँ कितने ही वक़्त को मैंदेखता आया हूँपुराने घरों और मुहल्लों मेंदेवालयों और गुम्बदों के खण्डहरों मेंगिरकर घायलों की तरह तडपते हुए। ऐसा लगने लगा है कि, दिलों और तमन्नाओं के भीखण्डहर होते हैं;जहाँ आदमीएकल गायन गा-गा करख़ुद ही का शहीद-दिवस मनाता हैऔर अकेले उद्घोषणा करता हैछिपाता है हथियारों कोअपने उस को फँसाने के लिए। यहाँ आजकलयात्राओं का कोई मंज़िल नहीं,कुछ जागृति के रास्ते सेढुक जाते हैं सपनों के अन्दर,कुछ कन्धों पे रोशनी ढोकरअन्धेरों को ढूँढ़ते चलते हैं ।टूट कर गिर जाते हैं सपनेजागृतियाँ क्षत-विक्षत हो जाती हैं ।एक किशोर कोअपने कान की बग़ल से उड़ती गोलियों की आवाज़ो मेंवह संगीत सुनाई देता है जिसे वह ख़ुद घर पर छोड़ आया है। झूठे अभिनयअब सच्चे खेल हो चले हैं ।उनको देखन चाहते हुए भीताली मार रहा होता हूँ, मैंभीड़ के किनारे ख़ुद खड़ा होकर वाह ! वाह ! करते । वक़्त के कानों को मेरी ताली सुनाई नहीं देती ।मेरा समर्थन या विरोध सेकिसी खेल में हार या जीत नहीं होती । कहानियाँ ढूँढ़ने के लिए आनेवालों का इन्तज़ार कर अपने सभी अफ़सानों को समेटकर एक रँगमञ्च पर खड़ा कर देता हूँ मैं और तन्त्र के आलिङ्गन में बन्धे हुए आकाश-भैरव के नृत्यों को कपड़ों पर फैलाकर किसी के आने का इन्तज़ार करता रहता हूँ । कभी-कभी लगता हैसंस्कृति जिसे कहते हैंवह जैसे मेरे ही सपनों की खेती है;वक़्त परकुछ बना डालने की तमन्ना सेखुद का देखा हुआखुद ही टाँगा हुआ आकाश है । मैं पहले ही छोड आया हूँ घाटियाँ और पहाड़ियाँ और आजकलचलता हुआ पगडण्डियों परसभी को एक ही आकार देना चाहता हूँ । मझे आजकलऔरों के दिलों के खण्डहरों सेकुछ रचनाएँ उठा लाने की चाहत परेशान करती है,आजकल मैं यह सोच-सोचकर परेशान हूँकि अपना आकाश औरों को दे दूँजिससे शायद कहीं कुछ बन जाए । लेकिन लगता है,मेरी इस दौड़ के अन्दर कहीं ऐसे चबूतरें भी हैंजो औरों की नज़रोँ के साथ-साथ अपनी ही किसी यात्रा में दौड़ते हैं । मुझे आजकलकहीं चढ़ते हुएऊँचाई परेशान नहीं करतीउतरते वक़्तघाटी के परेशानियाँ असर नहीँ करतीं ।/ सुमन पोखरेल]]'''
''इस कविता का हिन्दी अनुवाद -'' '''[[आजकल मुझेकभी थका हुआ आकाश भी स्पर्श करे तो कहीं जाने की चिन्ता की रोशनी पीछा नहीं करती।/ अभि सुवेदी / सुमन पोखरेल]]'''
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