भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
इतना भी नहीं है
बस में मौत के
कि वह दे सके मोहलत
किसी को
सलीके से मरने की।की ।
कि वह तैयार कर सके
अपनी समाधि पर चढ़ाने के लिए
फूलों का कर सके
किसी ग़ुलाम की तरह
मौत को तो बस
अपने काम की भी
न दिखती
पहली बार शिकार कर रहे
शिकारी की -सी हड़बड़ी।हड़बड़ी ।
काश ! वह किसी कोइतना भी वक्त वक़्त दे पाती
कि वह जी भर देख पाता
अपनी प्रेयसी का मुख
फिरा पाता
अपने बेटे की पीठ पर
स्नेह भरा हाथ।हाथ ।
पर शायद हत्यारों को भी डर है
उनके हृदय पाषाण और
उनका क्रूर तिलिस्म टूट न जाए
कविता की पहली दस्तक से ही।ही ।
शायद इसीलिए