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नारी (दोहे) / गरिमा सक्सेना

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घर कोई उजड़े नहीं, बदलें अगर विचार।
बहुओं को भी मिल सके, बेटी जैसा प्यार।।
 
छ: गज लम्बी साड़ियाँ, चुनरी, बुरका, सूट।
बचा कहाँ पाये मगर, कोमल तन की लूट।।
 
सभी तितलियों ने स्वयं, नोंचीं अपनी पाँख।
जब से जहरीली हुई, उपवन में हर आँख।।
 
जाति धर्म के जोड़ में, पीड़ित है लाचार।
अपराधी को मिल गये, ढेरों पैरोकार।।
 
नारी संज्ञा सँग जुड़ें, प्रत्यय औ उपसर्ग।
पर अपने ही अर्थ का, रहे उपेक्षित वर्ग।।
ज्यों ही फैला गाँव में, कोई भीषण रोग।
नई बहू मनहूस है, लगा दिया अभियोग।।
</poem>
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