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प्रतिस्पर्धात्मक आधुनिक युग में प्रायः यह देखा जा रहा है कि साहित्य, लेखन एवं प्रकाशन में भी राजनीति के समान दाँव-पेंच अपनाये जाते हैं; इससे अधिक नकारात्मक कुछ भी नहीं हो सकता । इन नकारात्मक पक्षों के मुख्य कारणों एवं परिणामों का उल्लेख मैं नहीं करना चाहती; क्योंकि अधिकांशतः सभी उन तथ्यों से परिचित हैं । यहाँ मात्र उन तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है जिनके द्वारा रचनाकर्म समाज को यथोचित दिशा प्रदान कर सके. रचनाकार एक तटस्थ द्रष्टा के समान विषयों को निर्लिप्त भाव से देखे एवं उन पर अपनी लेखनी चलाये; उसमें उसे अपनी सफलता, यश, आर्थिक लाभ एवं अन्यान्य परिणामों का भान ना रहे; यदि लेखन तपस्या के समान हो तभी इसको वस्तुतः लेखन कहा जा सकता है; अन्य स्थितियों में यह मात्र व्यापार ही रहेगा।