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12:31, 20 मई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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<poem>
मेरी पीर लकीरें उसकी
उभरी हुई पड़ीं
मेरे पदचिह्नों पर बिटिया
होने लगी बड़ी
देख डाकिए को उत्कंठा
पथ के रोध चलांँगे
खींच रहे थे मन के घोड़े
बिन पहियों के तांँगे
वेग समय के माप रही थी
चलती नहीं घड़ी
पेपर, कॉपी, कलम, डायरी
औ' फाइल के पन्ने
छीन रही माँ उसकी उससे
रहती है चौकन्ने
चीर-फाड़, जिद में डरवाती
लेकर हाथ छड़ी
वेशकीमती खेल-खिलौने
उनसे मुंँह मोड़े
आंँगन से देहरी तक फैले
हाथी, भालू, घोड़े
रोती, पत्र-लिफाफे को फिर
आकर पास अड़ी
-रामकिशोर दाहिया
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