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हमें फ्रेम के
अन्दर मढ़कर
चले गये तुम छोड़-छाड़ के
आदत नहीं
शलाकाओं की
बाहर निकले तोड़-ताड़ के
बन्द गुफा के
भीतर तुमने
वर्षों रात गुजारे दिन थे
लगें खिलौना
प्राणहीन हम
नज़र तुम्हारी ताकत बिन थे
बीज पेड़ के
हम अँकुराये
निकले पत्थर फोड़-फाड़ के
कोई चीज
आग की रोड़ा
कैसे कहाँ भला कब बनतीं ?
एक दहक
आकर दिलाये
लपटें उसकी छतरी तनतीं
जिसने रोका
लिंगी मारी
रखा उसी को मोड़-माड़ के
 
तीरंदाजी
नहीं काम की
बेतुक हुआ निशाना साधा
औरों को
पटखनी लगाने
करते रहे स्वयं बल आधा
अपने कद को
दिये ऊँचाई
सारी टूटन जोड़-जाड़ के
-रामकिशोर दाहिया
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