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किताब बनूँ / रेखा राजवंशी

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<poem>
आज मैं फिर से माहताब बनूं
तू मुझे पढ़ तेरी किताब बनूं

शबनमी रात की ख़ुमारी में
तू मुझे पी, तिरी शराब बनूं

पूछे कितने सवाल ये दुनिया
उनकी हर बात का जवाब बनूं

तू भी बन जाए गुल मिरा हमदम
मैं भी महका हुआ शबाब बनूं

तू सहर लाने का तो कर वादा
तेरी ख़ातिर मैं आफ़्ताब बनूं
</poem>