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13:57, 20 नवम्बर 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुषमा गुप्ता
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|संग्रह=
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<poem>
'''मेरे पास नहीं था सलीका प्रेम का।'''
मैंने मौन की छोटी-छोटी ढेरियाँ
सजा दीं उसके इर्द-गिर्द ।
मैंने इंतज़ार किया ,
वह इन सब कच्ची ढेरियों को गूँथकर
बना लेगा एक अदद बात ..
एक प्रेम की बात
मौन की ढेरियाँ गूँथी जाती हैं
बहुत आहिस्ता-आहिस्ता
अँजुरी भर अहसासों के पानी से।
मैं इतनी बेसलीका थी
कि मान बैठी यह सब , स
ब प्रेम करने वालों को पता होता है ।
और इतनी बेसलीका
कि भूल बैठी ,
यह हुनर भी आदम की जात को सीखने में ज़माने लगते हैं
कभी तो जन्म भी ।
'''प्रेम और मोह के बीच की बात अधूरी रही सदा'''
मोह ने ओढ़े प्रेम के आवरण
मोह के पास नहीं थी प्रेम की अँजुरी
मोह के पास थे लबालब बादल
उद्धिग्न बरसात ने बहा दी ढेरियाँ।
ऐसा होना किसका कसूर था!
</poem>