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|सारणी=पटकथा / धूमिल
}}
<poem>भूख और भूख की आड़ में<br>चबायी गयी चीजों का अक्स<br>उनके दाँतों पर ढूँढना<br>बेकार है। समाजवाद<br>उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का<br>एक आधुनिक मुहावरा है।<br>मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद<br>मालगोदाम में लटकती हुई<br>उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है<br>और उनमें बालू और पानी भरा है।<br>यहाँ जनता एक गाड़ी है<br>एक ही संविधान के नीचे<br>भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम<br>‘दया’ है<br>और भूख में<br>तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।<br>मुझसे कहा गया कि संसद<br>देश की धड़कन को<br>प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है<br>जनता को<br>जनता के विचारों का<br>नैतिक समर्पण है<br>लेकिन क्या यह सच है?<br>या यह सच है कि<br>अपने यहां संसद -<br>तेली की वह घानी है<br>जिसमें आधा तेल है<br>और आधा पानी है<br>और यदि यह सच नहीं है<br>तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को<br>अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?<br>जिसने सत्य कह दिया है<br>उसका बुरा हाल क्यों है?<br>मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल<br>करता हूँ जिसका मेरे पास<br>कोई उत्तर नहीं है<br>और आज तक –<br>नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये<br>मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं<br>हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के<br>निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण<br>जिये हैं।<br>मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है<br>संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं<br>हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।<br>दरिद्र की व्यथा की तरह<br>उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में<br>डूबा हुआ सारा का सारा देश<br>पहले की तरह आज भी<br>मेरा कारागार है।</poem>