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|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं है
वे एक आवाज भी हैं।

यदि ऐसा न होता
अजन्ता और एलोरा की गुफाएं
क्योंकर आज भी बोलतीं
कहानी उस अभूतपूर्व लगन की
जो उस समय के
लोगों में थी
एक कला के प्रति
और उससे भी ज्यादा
कला की गहराई में डूबकर
जीवन का अर्थ दूढने की।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के भी
दे रहे हैं आवाज मानव को,
इन पत्थरों का प्रयोग
कला की गहराई
तक ही सीमित रखों,
न कि ऐसी दीवारों को
बनाने के लिये
जो मानवता की
आवाज ही दबा दे।
</poem>
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