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नीसरणी / चंद्रप्रकाश देवल

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<poem>
अपांरै कनै ही
सोच सूं बणी अेक नीसरणी

इत्ती लांठी
के ऊभी कर्यां सुरग री नदी झील आवता
आडी पटक्यां
दोय टापुवां बिचलौ समंद लांघ जावता
बगत री झाळां माथैकर सरणाट दौड़ता
पूग जावता अेक दूजा रै अंतस
इत्ती सैणी अर सालस ही नीसरणी
के खुद रै खांधै तोक
वो लेय जावती अकास में, पताळ में
अपां नै

चावता जद भेळी कर कदैई टुकियां में
अर कदैई खूंजा में घात लेवता
वा अपांरी सड़क ही
पुळियौ ही
जिण माथै चढ़तां कदैई पग नीं तिसळ्यौ हौ

थूं चढ़नै बिसरगी चींतणौ
म्हैं उतरनै सोचणौ भूलग्यौ

पछै चोटी गूंथण कसमसावतां
थारै हाथै आयगी सूरज री आरसी
म्हैं हांफळतै झापटौ भर्यौ रोटी रै
मूठी खोली तौ मांय इळा ही

भूलग्या आपां बरतणौ
नींतर हाल ई अरथै आय सकै नीसरणी
वा सूरज री लाय में बळै जैड़ी कोनीं
अर नेठाव सूं इळा माथै टिक ई सकै

थूं हाल ई उतर सकै
म्हैं अजै ई चढ़ सकूं
नींतर, इंछा टाळ
बापड़ी नीसरणी कांई करै
छता गात्यां रै।
</poem>
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