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06:36, 26 जुलाई 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कृष्णकुमार ‘आशु’
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
'''(1)'''
काश!
मैं वक्त होता!
...तो वक्त तेरा गुलाम होता!
'''(2)'''
वक्त!
तू मुझे कुछ वक्त दे।
ताकि
बिता सकूं मैं
उसके साथ कुछ वक्त!
'''(3)'''
वक्त!
तू अगर दे दे मुझे
थोड़ा-सा वक्त।
तो बन जाएगा
अपना भी वक्त।
'''(4)'''
वक्त!
मैं उलझ गया
तेरी चाल में।
वरना
उतना बुरा नहीं मैं
जितना हूं बदनाम।
'''(5)'''
चला होता अगर
मैं भी साथ वक्त के।
संभव नहीं था
कि निकल जाता
वक्त मुझसे आगे।
'''(6)'''
उम्र भर
देता रहा मैं
दोष वक्त को।
और
वक्त हंसता रहा
मेरी अकर्मण्यता पर।
'''(7)'''
रखता है आकाश
सतरंगा इंद्रधनुष
और
गिरगिट की तरह
आदमी बदलता है रंग
लेकिन
हो जाते हैं सब बदरंग
जब वक्त बदल ले रंग।
</poem>
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