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{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
|अनुवादक=
|संग्रह=साँझ हो गई
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<poem>
भोर की
भटकी किरन
आ गई
तुमको जगाने
द्वार खोलो,
मत रहो चुप
मुखारविन्द से
दो शब्द बोलो।

यह किरन
तेरे हृदय का है उजाला
इस किरन को
आस जैसे तुमने पाला ।
चूम लो स्मित अधर से
मुँह न मोड़ो
यह तुम्हारे उर की खुशबू
दिल न तोड़ो

यह तुम्हारी ही कृति
अनुभूति यह तुम्हारी
प्राण से भी ज़्यादा प्यारी
इसे हृदय में बसा लो
भटकी निकलकर गोद से
गले से इसको लगा लो।
मनप्राण में इसको बसा लो।
बहुत कुछ करना तुम्हें
कुछ तो बोलो
सागर- सा मन तुम्हारा
उठो उसके द्वार खोलो।
-0-

</poem>