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|रचनाकार=रुचि बहुगुणा उनियाल
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<poem>
झींगुरों का गीत तो
सब ने सुना
न सुनी गई मेंढ़क की ध्वनि
इतिहास ने उसे दादुर राग कहकर
कर दिया बहिष्कृत श्रावण के सौंदर्य से
उसके लयबद्ध राग को
दी गई उपमा टर्र-टर्र टर्राने की
जबकि उसका निरपराध स्वर
करता रहा पुष्टि इस बात की
कि अब बरसेगा मेह आसमाँ से
कि फिर से पानी लिखेगा
धरती की छाती पर
हरा पृष्ठ उर्वरता का
कि खेतों की फटी बिवाईयाँ
अब "मौळ्याने" वाली हैं
असल में केवल धरती जानती है
कि मेंढ़क की टेर सुनकर ही
गदराई थी नीम की निंबौली
कि संगीत के द्विशतकीय रागों की श्रृंखला से भी पहले
धरती का घूर्णन नृत्य
मेंढ़क के सुमधुर राग पर ही प्रारंभ हुआ था।
</poem>
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