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<poem>
गांव में नब्बे के दशक की एक कहावत है
जोरू के गुलाम बनने से पहले
घोड़े के जैसे उसकी लगाम कस दो.

मैं पूछता हूँ — पर क्यों?

पितृसत्ता के पांव की छाप
देर-सबेर पुरुषों तक भी पहुंची है

वे पुरुष
जिन्होंने लगाये अपनी पत्नी के हाथों में मेंहदी ,
वे पुरुष
जिन्होंने किसी रोज सुबह बनाई चाय!

वे पुरुष
जिन्होंने कभी भी नहीं लगाया अपनी पत्नी को थप्पड़ ,
वे पुरुष
जिन्होंने चुना हर रोज पत्नी के साथ बाज़ार जाना ,
वे पुरुष
जिन्होंने नहीं विलीन होने दिये अपनी नायिका के स्वप्न!

वे पुरुष
जिन्होंने क्षणिक कुंठित अभिमान को समाप्त करने के लिए
रौंद दिये पितृसत्ता के रखवालों के पाँव..

उस वर्तमान समाज ने उन्हें दी
मऊगहर लड़के की संज्ञा!
और सोचा इससे छिन जाएगा उनका पुरुषत्व।

अगर बचा है उन पुरुषों का अस्तित्व
तो मुझे इतना विश्वास है कि
वे होंगे इस समय दुनिया के सबसे संवेदनशील पिता

दी होगी उन्होंने अपने बच्चों को पहली शिक्षा
कि —
किसी स्त्री को प्रेम देने से पूर्व उसे इज्ज़त देनी चाहिए।

हे पुरुष!
मैं अंतत: तुमसे क्षमा चाहता हूँ
और कहना चाहता हूँ कि —

किसी रोज बेपरव़ाह होकर
चूम लो सबके समक्ष अपनी स्त्री के पाँव
जैसे चूम लेती है आषाढ़ की पहली बारिश
मेरे गांव की मिट्टी।
</poem>
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