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अपशब्द / दीपा मिश्रा

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<poem>
अपन कुंठा निकालबाक लेल
ओ बना लेलक कतेको एहेन
शब्द,जाहिसँ दोसरकेँ
पीड़ा पहुँचाओल जा सकैये
लेकिन तैयो माँ बहिन मुँह पर रहिये गेलै
किया कोनो अपशब्दमे पुरुष नै रहैये
कुल्टा, वैश्या, रंडी, छिनाल,रखनी
खाली स्त्रिये किया कहाइये
न पिता न पति न पुत्रक रूपमे
ओ कोनो गारिमे राखल जाइये
जखनि की बेटी तकके नै छोड़ल गेल
एहेन समाजकेँ की जगायब
जे ढोंग केने सुतल रहैये
यदि जागल रहितै त'
कहियो चिता पर बैसा एहि
अपशब्द सबकेँ डाहि चुकल रहिते
कहबाक लेल शिक्षित समाज
एखनो नहि परहेज कऽ पबैत छथि
कियाक तँ नेनेसँ घुट्टीमे
इहा पियाओल जाइत अछि की
अपशब्दमे हरदम ओकरा घुसा दियौ
ओ कहियो मुँह नै खोलत
चाहे संबंध हो, चाहे कोनो अंग हो
ओकर सब किछु पर वर्चस्व पुरुषक
लेकिन आब हम चाहब जे किछु त'
एहेन नब शब्दक निर्माण हुए जे
ओकरो आत्मा पर ओहिना प्रहार करै
जतेक आहत ओ स्त्रीकेँ करैये
वा आइये आ अहिखन ओ सबटा
एहन शब्दक परित्याग करे
जे दोसरक आत्मसम्मानकेँ
चोट पहुँचेबाक लेल मात्र बनाओल गेल
</poem>
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