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Kavita Kosh से
जंगली जानवर के बदले
मैं घुस गया था पिंजरे में ।
गला डाली मैंने अपनी उम्र चीख़ते-चिल्लाते चिल्लाते बैरक में ।
समुद्र के किनारे मैं खेलता रहा रूलैट
खाना खाता था मैं पता नहीं किसके साथ ।
इतने लोग भूल चुके हैं अब मुझे
कि पूरा शहर भर सकता है उनसे ।
मैं स्तेपी स्तेपी के मैदानों में भटकता रहा जिनकी यादों में
ताज़ा थी चीख़ें,
पहनता था कपड़े जो फिर से आ जाते थे फ़ैशन में
बोता था जई, खलिहान को ढकता था तिरपाल से
और नहीं पीता था केवल सूखा जल
आने देता था सपनों में पहरेदारों की कव्वोंकव्वों-जैसी पुतलियों को,
भकोसता था निर्वासन की रोटी छोटा-सा टुकड़ा भी छोड़े बिना ।
अपने कण्ठ से निकलने देता था हर तरह की ध्वनियों ध्वनियों को
सिवा रोने-धोने की आवाज़ के,
बोलना अब फुसफुसाने तक रह गया था ।
अब मैं चालीस का हो गया हूँ
जो इतनी लम्बी निकल आई ।
एकता का भाव अब महसूस होता है सिर्फ़ दुखों के साथ
पर अभी तक मिट्टी से बन्द नहीं किया गया है मेरा मुँह
उसमें से निकलेंगे
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