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प्रतिनिधि दोहे / गरिमा सक्सेना

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बहरे होने की कला, सदी रही है सीख
अब उसको सुननी कहाँ, पंखुड़ियों की चीख

‘गरिमा’ यूँ ही तो नहीं, दिखता समय कुरूप
बर्फ़ बनाई जा रही, अब आँगन की धूप

जली हुई ये रोटियाँ, रोईं सारी रात
हमने ही पैदा किये, ज़ख्मों के हालात

रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार

कहा खिड़कियों को बुरा, दिया सफल व्याख्यान
जो ख़ुद अपनों के लिए, हैं बस रोशनदान

कोई भी मालिक रहे, क्या बदलेगा हाल
हम बकरे की जात हैं, होना हमें हलाल

देगी कैसे सभ्यता, नैतिकता का इत्र?
जब भविष्य की सोच में, जमा नग्न चलचित्र

आख़िर यह कैसे हुआ, बतला मुझे किताब?
मुझे ज़िंदगी ने दिये, तुझसे अलग जवाब

जिसने यौवन के लिए, ख़ूब उजाड़े बाग़
सुबह-सवेरे खोजता, वह चादर में दाग़

कुहरे ने पैदा किये, कुछ ऐसे हालात
अनब्याही इस भोर की, लौट गई बारात

हो सकती कैसे सफल, ‘गरिमा’ उसकी दौड़?
सोनागाछी मन बसी, और लक्ष्य चित्तौड़

कुछ चोटें गहरी मगर, दिखते नहीं निशान
कुछ चीखें खामोश—सी, सुन कब पायें कान?

कुल्हाड़ी औ’ बाँसुरी, लकड़ी के अनुवाद
तुम पर है जो बाँट लो, नफ़रत या आह्लाद

गर्म सलाखें वक़्त की, गयीं उसे भी दाग
जो सबसे कहता फिरा, आग, आग मैं आग

चमक-दमक का लग गया, मन को गहरा चाव
राजमार्ग को कब दिखे, पगडंडी के घाव?

चाहे कुहरे ने किये, लाखों कठिन सवाल
पर सूरज के हाथ में, जलती रही मशाल

चूल्हे हैं ठंडे पड़े, छप्पर हैं बेहाल
संसद में होता नहीं, इनपर कभी बवाल

छ: गज लम्बी साड़ियाँ, चुनरी, बुरका, सूट
बचा कहाँ पाये मगर, कोमल तन की लूट?

ज़हर, कोख, जीवन, धरम, देह, अंग-व्यापार
जाने किस-किस चीज़ को, बेच रहा बाज़ार

जिन्हें सलामी दे रहा, नित्य इंडिया गेट
उन्हीं शहीदों के स्वजन, सोते भूखे पेट

तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार

धूप उजाला माँगती, जा दीपक के पास
‘गरिमा’ कितना क्षीण अब, हुआ आत्मविश्वास

धूप ओढ़कर दिन कटे, शीत बिछाकर रात
अच्छे दिन देकर गये, इतनी ही सौगात

नारी संज्ञा सँग जुड़ें, प्रत्यय औ’ उपसर्ग
पर अपने ही अर्थ का, रहा उपेक्षित वर्ग

पुनः पिताजी त्यागकर, अपना प्रिय सामान
ले आये बाज़ार से, बच्चों की मुस्कान
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