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19:28, 29 जनवरी 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मधु शुक्ला
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|संग्रह=
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<poem>
झील, नदिया, खेत, जंगल हो गए बादल ।
ज़र्द आँखों में हरापन बो गए बादल ।
ख़ूब उमड़े, ख़ूब घुमड़े, पर नहीं बरसे,
और जब बरसे, धरा को धो गए बादल ।
हो गए तन - मन लुटाकर, जब बहुत हल्के,
रुई से बिखरे हवा में खो गए बादल ।
लौटकर आए गगन से, जब थके - हारे,
सिर टिकाकर पर्वतों पर सो गए बादल ।
जब कभी पूछी कहानी, आग - पानी की,
मुस्कुराए, फिर छलककर रो गए बादल ।
इक पपीहे की अबूझी प्रीति की ख़ातिर
दर्द के कितने समन्दर ढो गए बादल ।
कह गए थे लौटने को साथ मौसम के,
फिर कहाँ लौटे, यहाँ से जो गए बादल ।
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