Changes

अनछुआ ही रहा / मधु शुक्ला

2,050 bytes added, 19:46, 29 जनवरी 2024
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शुक्ला |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मधु शुक्ला
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सिर्फ तन नहीं थी मैं
तन के भीतर एक मन भी था
तुम्हारी आशाओं और आकाँक्षाओं से
भरा हुआ मन
चाहत की अनन्त कल्पनाओं से भरा मन
जो अनछुआ ही रहा
तुम्हारे तमाम स्पर्शो के बाद भी ।

मेरे अन्तस में उमगती प्यास की नदी
तलाशती रही तुम्हारी आँखों में
सम्भावनाओं का सागर
टटोलती रही दो बून्द नमी
उलीची हुई सम्वेदनाओं के सूखे समन्दर में ।

तुम्हारी उपेक्षाओं की सतह पर तड़पती
इच्छाओं की ये कोमल मछलियाँ
तोड़ती रहीं दम एक-एक कर
और बाँधे हुए, अपनी ख़ाली मुट्ठियों में
तुम्हारे होने का महज भ्रम
देखती रही होते हुए ओझल
अपनी आँखों के दायरों से
तुम्हारी तृष्णा के मृग को
लिप्साओं के मरुस्थलों में ।

गुज़र जाना चाहती थी मैं
तुम्हारे भीतर से
एक समूची सदी की तरह
पर पलों के पंख लगाए हुए तुम
मण्डराते रहे
मन और प्राणों से रहित इन मृत देहों पर
किसी गिद्ध की तरह ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,057
edits