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ठहर, कल झील निकलेगी इसी से / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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06:52, 26 फ़रवरी 2024
बचाये रब ही ऐसे पारखी से।
समय भी भर नहीं पाता है
इनको
इसको
,
सँभलकर
सँभल कर
घाव देना लेखनी से।
हकीकत
हक़ीक़त
का मुरब्बा बन चुका है,
समझ
लगा
बातों में लिपटी चाशनी से।
उफनते दूध की तारीफ ‘सज्जन’,
कभी मत कीजिए बासी कढ़ी से।
</poem>
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