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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
वो सामने थी मेरे खेलती नदी की तरह
उसी में डूब गया हूँ मैं अब उसी की तरह

मैं रोटियों की कड़ी धूप झेल आता हूँ
वो घर में मुझपे छिटकती है चाँदनी की तरह

चपातियाँ वो परसती है जब भी मुझको तो
चुपेड़ देती है वो प्यार को भी घी की तरह

बड़ी अधीर हो सौंधी-सी खिलखिलाती है
मैं छू के उसको गुज़रता हूँ जब नमी की तरह

वो दिन की सारी थकन उसपे टांग देता है
मगर वो कुछ नहीं कहती है अलगनी की तरह

हैं सभ्यताएँ जहाँ इर्द-गिर्द में पनपीं
कि ज़िन्दगी भी है औरत की इक नदी की तरह
</poem>
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