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|रचनाकार= कृष्णा वर्मा
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न कोई कहा- सुनी
न शिकवा न कोई शिकायत
इक दूजे संग खेल रहे हैं
'''मैं और समय'''
वह अपनी ताक़त दिखाता है
और मैं अपना हौसला
कभी वह जीत जाता है तो कभी मैं
प्रशंसक हैं हम एक दूसरे के
मैं कितनी भी बना लूँ योजना
पर होता है सब
वक़्त के हिसाब से ही
मैं इतनी नहीं जो दिखाई देती हूँ
मेरे भीतर बहुत सी पुकारें हैं
जिसे कोई न सुन सका
कितनी इच्छाएँ कितने स्वप्न
और निहित हैं कई कमाल
ढेरों- ढेर सवाल
जिन्हें देना है जवाब
मैं लगी रही तुम्हें
बनाने और बचाने में
कभी तो देते मेरे
हौसलों को मान
बनी जवाब तुम्हारे हर सवाल का
तुम्हारी तन्हाइयों की साथी
तुम्हारे झुकाने पर झुकी
तुम्हारे रोकने पर रुकी
तुम्हें जिताने को हारी
कहीं नाम नहीं मेरा फिर
संग सारी उम्र गुज़ारी
तुम्हें तुम्हारे अपनों को अपनाया
किसी आस न उम्मीद पर
मैंने सारी मोहब्ब्तें वार दीं।

</poem>