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<poem>
अबतक सूरज ढूँढा है
टूटे तारे में
बहुत हुआ अब
नहीं रहेंगे अँधियारे में

अपनी धरती
हम अपना आकाश लिखेंगे
पतझड़ के माथे पर
सुर्ख़ पलाश लिखेंगे

खो जायेंगे
वरना ये सपने नारे में

नहीं व्यवस्था
परिवर्तन को चाह रही है
अपने हिस्से
सिर्फ़ कँटीली राह रही है

कैसे खोजें
ऊष्मा इस गिरते पारे में

हमें बाँटती आयी
हैं विपरीत हवाएँ
एक नहीं होने देंगी
हमको सत्ताएँ

भाई-भाई
अलग खड़े हैं बँटवारे में
</poem>
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