भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे।
-0-
ब्रज अनुवाद:
मोरे टूटे घर भीतर/ रश्मि विभा त्रिपाठी
 
का मोरे टूटे घर भीतर बे बहोरि ऐहैं
जिहिं आवत ई मोरे सपुने रँगि जैंहैं
बे आए अरु आइ गवने
मो मन माँझ अपुनी सुरति जगाइ गवने
जबैं हौं बिनहिं विदा दई तौ बिनकी सुरति आवति हुती
जबैं बहुरी हौं अपुने माटी अरु पठालिनि के
चौमासे मैं रिसत चुअत घर भीतर
बिनहिं छोरि तौ बाकी सुरति सतावति हुती
किचन बाथरूम न कोऊ आराम जामैं
टीवी फ्रिज कम्प्यूटर न ईं मोबाइल
चहुँदिसि घने बिरिछ हुते देवदार अँयार के
अरु माटी पाथर के बा घर भीतर
बु कछू न हुतो जो बिनहिं चहतु हुतो,
पै मोरे बाई घर भीतर सुख सांति हुते
जित हौं आवति ई खेतन तैं थाकी,
जैंवति ई रोटी कोदे की-
घी अरु हरी सब्जी लगाइ,
पय पीवति ई जीभरि अरु
फिरि सोवति ई गाढ़ी निंदरि लै
जदपि मोरे ढिंग नाहिं हुते बिछौना
हौं उनमानी जु पै बे
अपुने घरैं गवने
कछू दिना बादि पतौ परौ कि
द्वै चारि दिना आराम मैं अनत रुकि गए
हौं उनमानी अजौं हौं तिनि बिसराइ दयौ,
पै बाकी सुरति नैं मोहि रुवाइ दयौ
अजौं उनमानति हौं जई रहि रहि कि का
मोरे टूटे घर भीतर बे बहोरि ऐहैं
जिहिं आवत ई मोरे सपुने रँगि जैंहैं।
-0-
 
</poem>