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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
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::'''1'''<br><br>
एक विजय और एक पराजय के बीच<br>
मेरी शुद्ध प्रकृति<br>
मेरा 'स्व' <br>
जगमगाता रहता है<br>
विचित्र उथल-पुथल में।<br>
मेरी साँझ, मेरी रात <br>
सुबहें व मेरे दिन<br>
नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं<br>
सियाह समुन्दर के अथाह पानी में<br>
::उठते-गिरते हुए दिगवकाश-जल में।<br>
विक्षोभित हिल्लोलित लहरों में <br>
मेरा मन नहाता रहता है<br>
साँवले पल में।<br>
फिर भी, फिसलते से किनारे को पकड़कर मैं<br>
बाहर निकलने की, रह-रहकर तड़पती कोशिश में<br>
कौंध-कौंध उठता हूँ;<br>
इस कोने, उस कोने<br>
::चकाचौंध-किरनें वे नाचतीं<br>
::सामने बग़ल में।<br><br>
मेरी ही भाँति कहीं इसी समुन्दर की<br>
सियाह लहरों में नंगी नहाती हैं।<br>
किरनीली मूर्तियाँ<br>
मेरी ही स्फूर्तियाँ<br>
निथरते पानी की काली लकीरों के<br>
कारण, कटी-पिटी अजीब-सी शकल में।<br>
उनके मुखारविन्द<br>
मुझे डराते हैं,<br>
इतने कठोर हैं कि कान्तिमान पत्थर हैं<br>
क्वार्ट्ज़ शिलाएँ हैं<br>
जिनमें से छन-छनकर<br>
नील किरण-मालाएँ कोण बदलती हैं।<br>
एक नया पहलू रोज़<br>
सामने आता है प्रश्नों के पल-पल में<br><br>