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जो हूँ,सो हूँ / अष्‍टभुजा शुक्‍ल

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<poem>
अब भाई
जो हूँ,सो हूँ

कोई टीवी तो हूँ नहीं
कि दाएँ बाएँ कर दो रिमोट
तो दृश्य दर दृश्य बदलता जाऊँ
कोई बोतल तो हूँ नहीं
कि खोल दो ढक्कन तो
आ जाऊँगा सामने
कोई लिफ्ट तो हूँ नहीं
कि दबा दो बटन तो
होने लगूँ ऊपर नीचे

आम का पेड़ हूँ भाई
शीशम की तरह केवल
तना ही तना तो नहीं रह सकता

वैसे थोड़ी बहुत गाँठ
तो हर लकड़ी में
होती ही होती है
फिर भी हमारी लकड़ी
थोड़ी कच्ची तो है ही
इसमें आसानी से धँस जाएगी काँटी
चल सकते हैं आरी और रन्दे फर्राटे से हम पर

लेकिन भाई
मौसम आने पर
आ सकती हैं मंजरियाँ भी हममें
फल सकते हैं, भाई
और चाहते हैं कि जब
पकने लगें हम
तो सुत उठकर कोई
धीरे से हिला ले हमें
इतनी आवृत्ति से
कि हमारे कच्चे फल
कदापि न टूटें

बावजूद इसके
कोई तना ही
देखना चाहता है तो
तने में भी तने
केले के तने हैं हम
परत दर परत
दुनिया में सबसे लंबी चौड़ी पत्तियाँ भी
हमारी ही हैं भाई
और सबसे बड़ा कत्थई फूल भी हमारा ही है

फूल से
ज्यों ज्यों झरते हैं
एक एक दल
पंजे के पंजे फल
निकलते हैं
नन्हीं नन्हीं अँगुलियों जैसे
और घौद ऐसी कि शायद किसी दिन
लिए दिए भहरा पड़ूँ
तने सहित
अपने ही भार से
फिर भी
हमारे बगल से ही
निकल आएगी
कोई नई पुत्ती
कभी निष्फल
नहीं होने पाएगा
यह संसार
</poem>
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