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आज कुछ ऐसा हुआ / नरेन्द्र जैन

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कमरा बहुत छोटा है जहाँ बैठकर हम
कविताओं के प्रूफ़ दुरूस्त करते हैं
बरसों से चला आ रहा यह क्रम
हमारे दो के अलावा जब कोई तीसरा आ जाता है
तब यह कमरा और छोटा हो जाता है
कमरे में बाहर से आने,
कमरे से घर में
दाख़िल होने का दरवाज़ा भी है
घर में होता ही रहता है बच्चों का शोरगुल
हमें आदत ही हो गई है शोरगुल में
कविताओं को पढ़ने की

कुछ देर के अन्तराल से
टाइपिस्ट का लड़का सहसा चला आता है
और पिता के गले में बाहें डालकर
ज़ोर - ज़ोर से कहता है
पापा सायकिल की हवा निकल गई है
या गुड्डी रो रही है
या स्कूल की आज छुट्टी है

मैंने एक दिन कह ही दिया टाइपिस्ट से
कि लड़का बेहद शरारती है
उसने बेहद संकोच से बतलाया कि
वह लड़का नहीं लड़की है
शुरू से ही उसे लड़के जैसा मानते आ रहे हैं
लड़के की चाहत में एक के बाद एक
चार लड़कियाँ हैं

अब तीन लड़कियों पर यह चौथी हावी रहती है
क्योंकि मिली हे उसे छूट
लड़का होने की

आज कुछ ऐसा हुआ
कि जाँचे नहीं गए मुझसे कविताओं के प्रूफ़
और मैंने तमाम अशुद्धियों को
वैसे ही रहने दिया
</poem>
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