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{{KKRachna
|रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा
|अनुवादक=राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
|संग्रह=
}}
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<poem>
शब्द और अर्थ के बीच
एक नारी ही बदल जाती है
लम्बे इन्तज़ार में ।
ख़ुद को कोड़ती है
बीज बोती है
अनाज उपजाती है
धरती को सदाबहार बनाती है
और जीवनभर
किसी न किसी की छाया में बैठकर
एक इनसान बनने की
अथक प्रतीक्षा करती है ।
</poem>
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|रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा
|अनुवादक=राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
|संग्रह=
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शब्द और अर्थ के बीच
एक नारी ही बदल जाती है
लम्बे इन्तज़ार में ।
ख़ुद को कोड़ती है
बीज बोती है
अनाज उपजाती है
धरती को सदाबहार बनाती है
और जीवनभर
किसी न किसी की छाया में बैठकर
एक इनसान बनने की
अथक प्रतीक्षा करती है ।
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