आकाश हो तुम काला, पड़े सूरज की छाया
मैं हूँ समुद्र अन्धेरा, इस पर नज़र रखता
लिटाई जाती गीली क़ब्रों में कैसे मृतकों की काया
दफ़नाता उनमें तेरी रोशनी, मिट्टी से ढकता
पर सुबह-सवेरे गर तुम रक्ताभ रहे होंगेहोते,तो शृंगार करना पड़ेगा पड़ता तुमको फिर भोर ।मोतियों की माँ से ही लहरें मुझे मिली होंगीहोतीं,
औ’ फ़िरोज़ी रंग मेरा आपसी समझ का ज़ोर ।
और गर तुम होते एक रूखे बादल होंगे, हुज़ूर !नीली भौंह पर बल पड़े हैंपड़ते, गुस्से में हो होते चूर ।तो मैं उठाऊँगा भी उठाता लहर अपनी एक सैलाबी,फिर आ मिलूँगा मिलता मैं तेरे , उस तूफ़ान ख़िताबी ।
'''मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय'''