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अंतत: / सुकेश साहनी
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,
29 मार्च
मेरे होठों पर
पर नहीं रोक सका मेरे
रोम
-
छिद्रों से बहता पसीना
झल्लाकर
उसने काट डाले मेरे
अन्ततः
उसने झोंक दिया मुझको
बिजली की भट्ठी में
;
पर नहीं छीन सका मुझसे
अंसख्य-असंख्य
माँओं की कोखें
माँएँ
</poem>
वीरबाला
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