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<poem>
गिरती हुई महराब का मंज़र लिए हुए
कोई न जिए जेहन में खण्डर लिए हुए

मुझको थी ज़रूरत किसी दरिया की बूँद की
वो आए मगर साथ में सागर लिए हुए

जीता है कोई जीस्त को फूलों के साथ में
जीता है कोई हाथ में पत्थर लिए हुए

माँ बाप की बीमारियाँ बच्चों की भूख भी
हरदम वह गया काम पर है घर लिए हुए

दुनिया की सभी जहमतें बेबात ही यहाँ
कितने ही बशर फिर रहे सर पर लिए हुए

है वज़्न मेरे सर पर बहुत काम धाम का
घर पर मैं पहुँचता हूँ यूँ दफ़्तर लिए हुए

कब से ही तेरा देख रहा हूँ मैं रास्ता
अब आ भी मेरे दोस्त तू खंज़र लिए हुए
</poem>
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